पापों से मुक्ति
हमारा पाप हमें परमेश्वर से अलग करता है, और इसका अर्थ यह है कि जब हम मर जाते हैं तो हम स्वर्ग में परमेश्वर के साथ नहीं रह सकते। यीशु ने हमारे पाप की सजा कबूल कर ली और वह क्रूस पर मर गया। जब हम यीशु पर विश्वास करते हैं, तो हम पाप कि सज़ा से बच जाते हैं और हमें अनंत जीवन मिलता है। (प्रेरितों 4:12, इफिसियों 2:8).
विश्वास
परमेश्वर पर भरोसा और विश्वास, किसी वस्तु पर विश्वास करना, भले ही हम उसे देख न सकें (इब्रानियों 11:1).
कृपा
भले ही हम परमेश्वर से सजा पाने के लायक हैं, वह हमसे प्यार करता है और हमें क्षमा और चंगाई देता है। (रोमियों 5:8).
पाप
परमेश्वर, दूसरों या स्वयं के खिलाफ कोई भी गलत विचार, शब्द या कार्य। (रोमियों 3:23, 6:23).
पछतावा
स्वयं के रास्तों को छोड़कर परमेश्वर के रस्ते पर चलना, हमारी सोच और व्यवहार को बदलना। (2 कुरिन्थियों 7:9-10).
(10) क्योंकि जो दु:ख परमेश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया जाता, उसका परिणाम होता है हृदय-परिवर्तन तथा उद्धार। इसमें पछताना नहीं पड़ता। परन्तु सांसारिक दु:ख का परिणाम है मृत्यु।
धार्मिक
परमेश्वर के साथ सही होना, परमेश्वर के साथ एक अच्छा रिश्ता होना। (रोमियों 3:22, याकूब 2:23).
प्रार्थना
परमेश्वर के साथ बातचीत। (मत्ती 6:5-13, 1 थिस्सलुनीकियों 5:17).
(5) “जब तुम प्रार्थना करते हो तब ढोंगियों की तरह प्रार्थना नहीं करो। वे सभागृहों में और चौकों पर खड़ा हो कर प्रार्थना करना पसन्द करते हैं, जिससे लोग उन्हें देखें। मैं तुम लोगों से सच कहता हूँ, वे अपना पुरस्कार पा चुके हैं।
(6) जब तुम प्रार्थना करते हो, तो अपने कमरे में जाओ, द्वार बन्द करो और गुप्त में अपने पिता से प्रार्थना करो। तुम्हारा पिता, जो गुप्त कार्य को भी देखता है, तुम्हें पुरस्कार देगा।
आदर्श प्रार्थना
(7) “प्रार्थना करते समय गैर-यहूदियों की तरह व्यर्थ बातों की रट नहीं लगाओ। वे समझते हैं कि लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएँ करने से उनकी प्रार्थना सुनी जाएगी।
(8) उनके समान नहीं बनो, क्योंकि तुम्हारे माँगने से पहले ही तुम्हारा पिता जानता है कि तुम्हें किन-किन चीजों की जरूरत है।
(9) अत: तुम इस प्रकार प्रार्थना किया करो : हे स्वर्ग में विराजमान हमारे पिता! तेरा नाम पवित्र माना जाए।
(10) तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसे स्वर्ग में, वैसे पृथ्वी पर भी पूरी हो।
(11) हमारा प्रतिदिन का भोजन आज हमें दे।
(12) हमारे अपराध क्षमा कर, जैसे हमने भी अपने अपराधियों को क्षमा किया है।
(13) और हमें परीक्षा में न डाल, बल्कि बुराई से हमें बचा। [क्योंकि राज्य, सामर्थ्य और महिमा सदा तेरे हैं। आमेन।]
जल बपतिस्मा
पानी में डुबकी लगा कर बाहर आना, आपके आंतरिक परिवर्तन का सार्वजनिक चिन्ह है, यीशु पर विश्वास करने और मसीही बनने का व्यक्तिगत परिवर्तन का चिन्ह। (प्रेरितों 2:38, Romans 6:3-4).
(4) हम उनकी मृत्यु का बपतिस्मा ग्रहण कर उनके साथ इसलिए दफनाये गये हैं कि जिस तरह मसीह पिता के महिमामय सामर्थ्य से मृतकों में से जी उठे हैं, उसी तरह हम भी एक नया जीवन जीयें।
कलीसिया
लोग एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने और परमेश्वर की स्तुति के लिए एक साथ मिलते हैं (मत्ती 18:20, इब्रानियों 10:25).
ट्रिनिटी
तीन-एक की एकता। परमेश्वर केवल एक है। परमेश्वर के तीन अलग-अलग व्यक्ति हैं: पिता; पुत्र (यीशु); और पवित्र आत्मा। (मत्ती 28:19).
पुनरुत्थान
यीशु के मारे जाने के तीन दिन बाद वह फिर से जीवित हो गया। (मरकुस 16:1-8, 1 कुरिन्थियों 15:12-32).
(2) वे सप्ताह के प्रथम दिन बहुत सबेरे, सूर्योदय होते ही, कबर पर पहुँचीं।
(3) वे आपस में यह कह रही थीं, “कौन हमारे लिए कबर के प्रवेश-द्वार पर से पत्थर लुढ़का कर हटाएगा?”
(4) किन्तु जब उन्होंने ऊपर दृष्टि की तो देखा कि वह पत्थर हटा हुआ है! यह पत्थर बहुत बड़ा था।
(5) वे कबर के अन्दर गयीं और यह देख कर आश्चर्य-चकित रह गयीं कि श्वेत वस्त्र पहने एक नवयुवक दाहिनी ओर बैठा हुआ है।
(6) किन्तु उसने उनसे कहा, “आश्चर्य-चकित मत हो! आप लोग नासरत-निवासी येशु को ढूँढ़ रही हैं, जो क्रूस पर चढ़ाए गये थे। वह जी उठे हैं। वह यहाँ नहीं हैं। देखिए, यही जगह है, जहाँ उन्होंने उनको रखा था।
(7) परन्तु जाइए और उनके शिष्यों और पतरस से कहिए कि वह आप लोगों से पहले गलील प्रदेश जाएँगे। वहाँ आप लोग उनके दर्शन करेंगे, जैसा कि उन्होंने आप लोगों से कहा था।”
(8) वे कबर से बाहर निकलीं, और वहाँ से भाग गयीं; क्योंकि आतंक और अचंभे ने उन्हें आक्रांत कर दिया था। उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा; क्योंकि वे भयभीत थीं।
(13) यदि मृतकों का पुनरुत्थान नहीं होता, तो मसीह भी नहीं जी उठे।
(14) यदि मसीह नहीं जी उठे, तो हमारा संदेश सुनाना व्यर्थ है और आप लोगों का विश्वास करना भी व्यर्थ है।
(15) तब हम ने परमेश्वर के विषय में मिथ्या साक्षी दी; क्योंकि हमने परमेश्वर के विषय में यह साक्षी दी है कि उसने मसीह को पुनर्जीवित किया और यदि मृतकों का पुनरुत्थान नहीं होता, तो उसने ऐसा नहीं किया।
(16) कारण, यदि मृतकों का पुनरुत्थान नहीं होता, तो मसीह भी नहीं जी उठे।
(17) यदि मसीह नहीं जी उठे, तो आप लोगों का विश्वास करना मिथ्या है और आप अब तक अपने पापों में फंसे हुए हैं।
(18) इतना ही नहीं, जो लोग मसीह में विश्वास करते हुए मरे हैं, उनका भी विनाश हुआ है।
(19) यदि मसीह पर हमारी आशा इस जीवन तक ही सीमित है, तो हम सब मनुष्यों में सब से अधिक दयनीय हैं।
(20) किन्तु वास्तविकता यह है कि मसीह मृतकों में से जी उठे हैं। जो लोग मृत्यु में सो गये हैं, उन में से वह सब से पहले जी उठे।
(21) मृत्यु तो मनुष्य द्वारा आयी थी, इसलिए मनुष्य द्वारा ही मृतकों का पुनरुत्थान हुआ है।
(22) जिस तरह सब मनुष्य आदम में मरते हैं, उसी तरह सब मसीह में पुनर्जीवित किये जायेंगे।
(23) सब अपने क्रम के अनुसार, सब से पहले मसीह और बाद में उनके पुनरागमन के समय वे, जो मसीह के हैं।
(24) जब मसीह प्रत्येक आधिपत्य, अधिकार तथा शक्ति को नष्ट कर अपना राज्य पिता परमेश्वर को सौंप देंगे, तब युगान्त आ जाएगा।
(25) क्योंकि वह तब तक राज्य करेंगे, जब तक परमेश्वर सब शत्रुओं को उनके चरण तले न डाल दे।
(26) सब के अन्त में नष्ट किया जाने वाला शत्रु है-मृत्यु।
(27) धर्मग्रन्थ कहता है कि, “परमेश्वर ने सब कुछ उसके चरण तले डाल दिया है”; किन्तु जब वह कहता है कि “सब कुछ” उसके अधीन है, तो यह स्पष्ट है कि परमेश्वर, जिसने सब कुछ मसीह के अधीन किया है, इस “सब कुछ” में सम्मिलित नहीं है।
(28) जब सब कुछ पुत्र के अधीन कर दिया जायेगा, तब पुत्र स्वयं उस परमेश्वर के अधीन हो जायेगा, जिसने सब कुछ उसके अधीन कर दिया और इस प्रकार परमेश्वर सब पर पूर्ण शासन करेगा।
(29) यदि ऐसा नहीं है, तो वे लोग क्या करें जो मृतकों के लिए बपतिस्मा लेते हैं? यदि मृतकों का पुनरुत्थान बिल्कुल नहीं होता, तो वे मृतकों के लिए बपतिस्मा क्यों लें?
(30) और हम स्वयं-हम क्यों हर समय संकटों का सामना करते हैं?
(31) हे भाइयो और बहिनो! आप हमारे प्रभु येशु मसीह में मेरे गौरव हैं। मैं आपकी शपथ खा कर कहता हूँ कि मुझे प्रतिदिन मृत्यु का सामना करना पड़ता है।
(32) यह मैं मनुष्य की दृष्टि से कह रहा हूँ: यदि मुझे इफिसुस नगर में “हिंस्र पशुओं” से लड़ना पड़ा तो इससे मुझे क्या लाभ? यदि मृतकों का पुनरुत्थान नहीं होता, तो “हम खायें और पियें; क्योंकि कल हमें मरना ही है!”
ईस्टर
आमतौर पर मार्च या अप्रैल में मनाया जाता है, ईस्टर यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान का उत्सव और स्मरण है कि उस पुनरुत्थान से हमने क्या हासिल किया। (मत्ती 26:1-28).
(2) “तुम जानते हो कि दो दिन बाद पास्का (फसह) का पर्व है। तब मानव-पुत्र क्रूस पर चढ़ाये जाने के लिए पकड़वाया जाएगा।”
(3) अब काइफा नामक प्रधान महापुरोहित के महल में अन्य महापुरोहित और समाज के धर्मवृद्ध एकत्र हुए।
(4) उन्होंने आपस में यह परामर्श किया कि हम किस प्रकार येशु को छल से गिरफ्तार करें और उन्हें मार डालें।
(5) परन्तु वे कहते थे, “पर्व के दिनों में नहीं। कहीं ऐसा न हो कि जनता में दंगा हो जाए।”
(6) जब येशु बेतनियाह गाँव में शिमोन कुष्ठरोगी के यहाँ थे,
(7) तब एक महिला संगमरमर के पात्र में बहुमूल्य इत्र ले कर आयी। येशु भोजन कर ही रहे थे कि उसने उनके सिर पर इत्र उंडेल दिया।
(8) शिष्य यह देख कर झुंझला उठे और बोले, “यह अपव्यय क्यों?
(9) यह इत्र ऊंचे दामों पर बिक सकता था और इसकी बिक्री से प्राप्त धनराशि गरीबों में बाँटी जा सकती थी।”
(10) येशु को इसका पता चला और उन्होंने उन से कहा, “तुम इस महिला को क्यों तंग कर रहे हो? इसने मेरे लिए भला काम किया है।
(11) गरीब तो सदा तुम लोगों के साथ रहेंगे, किन्तु मैं सदा तुम्हारे साथ नहीं रहूँगा।
(12) मेरे शरीर पर यह इत्र लगाकर इसने मेरे गाड़े जाने की तैयारी में कार्य किया है।
(13) मैं तुम से सच कहता हूँ : सारे संसार में जहाँ कहीं यह शुभ समाचार सुनाया जाएगा, वहाँ इस स्त्री की स्मृति में इसके इस कार्य की भी चर्चा की जाएगी।”
(14) तब बारह प्रेरितों में से एक, जो यूदस इस्करियोती कहलाता है, महापुरोहितों के पास गया
(15) और उनसे कहा, “यदि मैं येशु को आप लोगों के हाथ पकड़वा दूँ, तो आप मुझे क्या देंगे?” उन्होंने यूदस को चाँदी के तीस सिक्के तौल कर दिए।
(16) उस समय से वह येशु को पकड़वाने का अनुकूल अवसर ढूँढ़ने लगा।
(17) बेखमीर रोटी के पर्व के पहले दिन शिष्य येशु के पास आ कर बोले, “आप क्या चाहते हैं? हम कहाँ आपके लिए पास्का पर्व के भोज की तैयारी करें?”
(18) येशु ने उत्तर दिया, “नगर में अमुक के पास जाओ और उससे कहो, ‘गुरुवर कहते हैं − मेरा समय निकट आ गया है, मैं अपने शिष्यों के साथ तुम्हारे यहाँ पास्का-पर्व का भोजन करूँगा।’ ”
(19) येशु ने जैसा आदेश दिया, शिष्यों ने वैसा ही किया और पास्का-पर्व के भोज की तैयारी कर ली।
(20) सन्ध्या हो जाने पर येशु बारहों शिष्यों के साथ भोजन करने बैठे।
(21) उनके भोजन करते समय येशु ने कहा, “मैं तुम लोगों से सच कहता हूँ : तुम में से एक मुझे पकड़वा देगा।”
(22) यह सुनकर शिष्य बहुत उदास हो गये और एक-एक कर उनसे पूछने लगे, “प्रभु! कहीं वह मैं तो नहीं हूँ?”
(23) येशु ने उत्तर दिया, “जो मेरे साथ थाली में हाथ डाल रहा है, वही मुझे पकड़वाएगा।
(24) मानव-पुत्र तो जा रहा है, जैसा कि उसके विषय में धर्मग्रन्थ में लिखा है; परन्तु धिक्कार है उस मनुष्य को, जो मानव-पुत्र को पकड़वा रहा है! उस मनुष्य के लिए अच्छा यही होता कि वह उत्पन्न ही नहीं हुआ होता।”
(25) येशु के विश्वासघाती शिष्य यूदस ने उनसे पूछा, “गुरुवर! कहीं वह मैं तो नहीं हूँ?” येशु ने उसे उत्तर दिया, “तुम ने ही कह दिया!”
(26) शिष्यों के साथ भोजन करते समय येशु ने रोटी ली, आशिष माँग कर तोड़ी और शिष्यों को दी, और कहा, “लो, खाओ। यह मेरी देह है।”
(27) तब उन्होंने कटोरा लिया और परमेश्वर को धन्यवाद दिया और यह कहते हुए उसे शिष्यों को दिया, “तुम सब इस में से पियो;
(28) क्योंकि यह विधान का मेरा रक्त है, जो बहुतों की पापक्षमा के लिए बहाया जा रहा है।
क्रिसमस
25 दिसंबर, जब हम यीशु मसीह के जन्म का जश्न मनाते हैं, और यह कि परमेश्वर हमारे जैसे मनुष्य बन कर आये। (लूकस 1:26-80, 2:1-40).
(27) जिसकी मंगनी राजा दाऊद के वंशज यूसुफ़ नामक पुरुष से हुई थी। उस कुँआरी का नाम मरियम था।
(28) स्वर्गदूत ने उसके पास आ कर उससे कहा, “प्रणाम, प्रभु की कृपापात्री! प्रभु आपके साथ है।”
(29) वह इस कथन से बहुत घबरा गयी और मन में सोचने लगी कि इस प्रणाम का अर्थ क्या है।
(30) तब स्वर्गदूत ने उससे कहा, “मरियम! डरिए नहीं। परमेश्वर ने आप पर कृपा की है।
(31) देखिए, आप गर्भवती होंगी, और एक पुत्र को जन्म देंगी और उसका नाम ‘येशु’ रखेंगी।
(32) वह महान होगा और सर्वोच्च परमेश्वर का पुत्र कहलाएगा। प्रभु परमेश्वर उसे उसके पूर्वज दाऊद का सिंहासन प्रदान करेगा।
(33) वह याकूब के वंश पर सदा-सर्वदा राज्य करेगा और उसके राज्य का अन्त कभी नहीं होगा।”
(34) मरियम ने स्वर्गदूत से कहा, “यह कैसे सम्भव होगा? क्योंकि मैं पुरुष को नहीं जानती।”
(35) स्वर्गदूत ने उत्तर दिया, “पवित्र आत्मा आप पर उतरेगा और सर्वोच्च परमेश्वर का सामर्थ्य आप पर छाया करेगा। इसलिए जो आप से उत्पन्न होगा, वह पवित्र होगा और परमेश्वर का पुत्र कहलाएगा।
(36) देखिए, बुढ़ापे में आपकी कुटुम्बिनी एलीशेबा को भी पुत्र होने वाला है। अब उसका, जो बाँझ कहलाती थी, छठा महीना हो रहा है;
(37) क्योंकि परमेश्वर के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।”
(38) मरियम ने कहा, “देखिए, मैं प्रभु की दासी हूँ। आपके कथन के अनुसार मेरे लिए हो।” तब स्वर्गदूत उसके पास से चला गया।
(39) उन दिनों मरियम उठी और पहाड़ी क्षेत्र में यहूदा प्रदेश के एक नगर को शीघ्रता से गई।
(40) उसने जकर्याह के घर में प्रवेश कर एलीशेबा का अभिवादन किया।
(41) ज्यों ही एलीशेबा ने मरियम का अभिवादन सुना, बच्चा उसके गर्भ में उछल पड़ा और एलीशेबा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गयी
(42) और ऊंचे स्वर से बोल उठी, “आप नारियों में धन्य हैं और धन्य है आपके गर्भ का फल!
(43) मुझे यह सौभाग्य कैसे प्राप्त हुआ कि मेरे प्रभु की माता मेरे पास आयीं?
(44) क्योंकि देखिए, ज्यों ही आपका प्रणाम मेरे कानों में पड़ा, बच्चा मेरे गर्भ में आनन्द के मारे उछल पड़ा।
(45) धन्य हैं आप, जिन्होंने यह विश्वास किया कि प्रभु ने आप से जो कहा, वह पूरा होगा!”
(46) इस पर मरियम ने यह कहा : “मेरी आत्मा प्रभु का गुनगान करती है;
(47) मेरा प्राण अपने मुक्तिदाता परमेश्वर में आनन्द मनाता है;
(48) क्योंकि उसने अपनी दासी की दीनता पर कृपा-दृष्टि की है। अब से सब पीढ़ियाँ मुझे धन्य कहेंगी;
(49) क्योंकि सर्वशक्तिमान ने मेरे लिए महान् कार्य किये हैं। पवित्र है उसका नाम!
(50) उसकी करुणा उसके भक्तों पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती है।
(51)“प्रभु ने अपना बाहुबल प्रदर्शित किया है, उसने अक्खड़ घमण्डियों को तितर-बितर कर दिया।
(52) उसने शक्तिशालियों को उनके सिंहासनों से उतार दिया और दीनों को महान् बनाया।
(53) उसने भूखों को अच्छी वस्तुओं से तृप्त किया और धनवानों को खाली हाथ लौटा दिया।
(54) उसने अपनी करुणा को स्मरण कर, अपने सेवक इस्राएल को संभाला;
(55) जैसी प्रतिज्ञा उसने हमारे पूर्वजों से की थी कि अब्राहम तथा उनकी सन्तान के प्रति उसकी करुणा सदा बनी रहेगी।”
(56) लगभग तीन महीने एलीशेबा के साथ रह कर मरियम अपने घर लौट गयी।
(57) एलीशेबा के प्रसव का समय पूरा हुआ और उसने एक पुत्र को जन्म दिया।
(58) जब उसके पड़ोसियों और सम्बन्धियों ने सुना कि प्रभु ने उस पर इतनी बड़ी दया की है, तब उन्होंने उसके साथ आनन्द मनाया।
(59) आठवें दिन वे बालक का खतना करने आए। वे उसका नाम उसके पिता के नाम पर जकर्याह रखना चाहते थे,
(60) परन्तु उसकी माँ ने कहा, “नहीं, इसका नाम ‘योहन’ रखा जाएगा।”
(61) उन्होंने उससे कहा, “तुम्हारे कुटुम्ब में यह नाम तो किसी का भी नहीं है।”
(62) तब उन्होंने उसके पिता से इशारे से पूछा कि वह उसका क्या नाम रखना चाहता है।
(63) उसने पाटी मँगा कर लिखा, “इसका नाम योहन है।” सब अचम्भे में पड़ गये।
(64) उसी क्षण जकर्याह के मुख और जीभ के बन्धन खुल गये और वह परमेश्वर की स्तुति करते हुए बोलने लगा।
(65) सब पड़ोसियों पर प्रभु का भय छा गया। और यहूदा प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र में ये सब बातें चारों ओर फैल गयीं।
(66) सब सुनने वालों ने उन पर मन-ही-मन विचार कर कहा, “पता नहीं, यह बालक क्या बनेगा?” क्योंकि सचमुच बालक पर प्रभु का हाथ था।
(67) योहन का पिता जकर्याह पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गया और उसने यह कहते हुए नबूवत की :
(68) “धन्य है प्रभु, इस्राएल का परमेश्वर! उसने अपनी प्रजा की सुध ली है और उसका उद्धार किया है।
(69) उसने अपने सेवक दाऊद के वंश में हमारे लिए एक शक्तिशाली मुक्तिदाता उत्पन्न किया है।
(70) वह अपने पवित्र नबियों के मुख से प्राचीन काल से यह कहता आया है
(71) कि वह शत्रुओं और सब बैरियों के हाथ से हमें छुड़ाएगा
(72) और अपने पवित्र विधान को स्मरण कर हमारे पूर्वजों पर दया करेगा।
(73) उसने शपथ खा कर हमारे पिता अब्राहम से कहा था
(74) कि वह हमारे शत्रुओं के हाथ से हमें मुक्त करेगा,
(75) जिससे हम निर्भयता, पवित्रता और धार्मिकता से जीवन भर उसके सम्मुख उसकी सेवा कर सकें।
(76) “हे बालक! तू सर्वोच्च परमेश्वर का नबी कहलाएगा; तू प्रभु का अग्रदूत बनेगा कि तू उसका मार्ग तैयार करे
(77) और उसकी प्रजा को पाप-क्षमा द्वारा मुक्ति का ज्ञान प्रदान करे।
(78) हमारे परमेश्वर की इस प्रेमपूर्ण दया से हमें स्वर्ग से प्रकाश प्राप्त होगा,
(79) जिससे वह अन्धकार और मृत्यु की छाया में बैठने वालों को ज्योति प्रदान करे और हमारे चरणों को शान्ति-पथ पर अग्रसर करे।”
(80) बालक योहन बढ़ता गया और उसका आत्मिक बल विकसित होता गया। वह इस्राएल के सामने प्रकट होने के दिन तक निर्जन प्रदेश में रहा।
(2) यह पहली जनगणना थी और उस समय िक्वरिनियुस सीरिया देश का राज्यपाल था।
(3) सब लोग नाम लिखवाने के लिए अपने-अपने नगर जाने लगे।
(4) यूसुफ़ दाऊद के घराने और वंश का था; इसलिए वह गलील प्रदेश के नासरत नगर से यहूदा प्रदेश में दाऊद के नगर बेतलेहम को गया,
(5) जिससे वह अपनी गर्भवती पत्नी मरियम के साथ नाम लिखवाए।
(6) जब वे वहीं थे तब मरियम के गर्भ के दिन पूरे हो गये;
(7) और उसने अपने पहिलौठे पुत्र को जन्म दिया और उसे कपड़ों में लपेट कर चरनी में लिटा दिया; क्योंकि उनके लिए सराय में जगह नहीं थी।
(8) उस क्षेत्र में चरवाहे मैदानों में डेरा डाले हुए थे और वे रात को अपने झुण्ड पर पहरा दे रहे थे कि
(9) प्रभु का एक दूत उनके पास आ कर खड़ा हो गया। प्रभु का तेज उनके चारों ओर चमक उठा और वे बहुत डर गये।
(10) स्वर्गदूत ने उनसे कहा, “मत डरो! देखो, मैं तुम्हें बड़े आनन्द का शुभ समाचार सुना रहा हूँ जो सब लोगों के लिए है।
(11) आज दाऊद के नगर में तुम्हारे मुक्तिदाता ने जन्म लिया है−यही प्रभु मसीह हैं।
(12) यह तुम्हारे लिए चिह्न होगा : तुम एक शिशु को कपड़ों में लपेटा और चरनी में लिटाया हुआ पाओगे।”
(13) एकाएक उस स्वर्गदूत के साथ स्वर्गीय सेना का विशाल समूह दिखाई दिया, जो यह कहते हुए परमेश्वर की स्तुति कर रहा था,
(14) “सर्वोच्च स्वर्ग में परमेश्वर की महिमा हो और पृथ्वी पर उन मनुष्यों को शान्ति मिले, जिनसे वह प्रसन्न है।”
(15) जब स्वर्गदूत उन से विदा हो कर स्वर्ग चले गये, तब चरवाहों ने एक-दूसरे से यह कहा, “चलो, हम अभी बेतलेहम जा कर यह घटना देखें, जिसे प्रभु ने हम पर प्रकट किया है।” (16) वे शीघ्र ही चल पड़े और उन्होंने मरियम, यूसुफ तथा चरनी में लेटे हुए नवजात शिशु को पाया।
(17) उसे देखने के बाद उन्होंने बताया कि इस बालक के विषय में उन से क्या-क्या कहा गया है।
(18) सब सुनने वाले लोग चरवाहों की बातों पर चकित हो गए।
(19) पर मरियम ने इन सब बातों को अपने हृदय में संजोए रखा और वह इन पर विचार करती रही।
(20) जैसा चरवाहों से कहा गया था, वैसा ही उन्होंने सब कुछ देखा और सुना; इसलिए वे परमेश्वर का गुणगान और स्तुति करते हुए लौट गये।
(21) आठ दिन के बाद जब बालक के खतने का समय आया, तब उसका नाम “येशु” रखा गया। स्वर्गदूत ने गर्भाधान के पहले ही यही नाम दिया था।
(22) जब मूसा की व्यवस्था के अनुसार उनके शुद्धिकरण का दिन आया, तब मरियम और यूसुफ़ बालक को यरूशलेम
नगर ले गये कि उसे प्रभु को अर्पित करें।
(23) जैसा कि प्रभु की व्यवस्था में लिखा है : “हर पहिलौठा पुत्र प्रभु के लिए पवित्र माना जाए।”
(24) और इसलिए भी कि वे प्रभु की व्यवस्था की आज्ञा के अनुसार पण्डुकों का एक जोड़ा या कपोत के दो बच्चे बलिदान में चढ़ाएँ।
(25) उस समय यरूशलेम में शिमोन नामक एक धर्मी तथा भक्त मनुष्य रहता था। वह इस्राएल की सान्त्वना की प्रतीक्षा में था। पवित्र आत्मा उस पर था
(26) और उसे पवित्र आत्मा से यह प्रकाशन मिला था कि, जब तक वह प्रभु के मसीह के दर्शन न कर लेगा, तब तक उसकी मृत्यु न होगी।
(27) वह पवित्र आत्मा की प्रेरणा से मन्दिर में आया। जब माता-पिता बालक येशु के लिए व्यवस्था की विधियाँ पूरी करने उसे भीतर लाए,
(28) तब शिमोन ने बालक को अपनी गोद में लिया और परमेश्वर की स्तुति करते हुए कहा,
(29) “हे स्वामी, अब तू अपने वचन के अनुसार अपने सेवक को शान्ति के साथ विदा कर;
(30) क्योंकि मेरी आँखों ने उस मुक्ति को देख लिया,
(31) जिसे तूने सब लोगों के सम्मुख प्रस्तुत किया है।
(32) यह अन्य-जातियों को प्रकाशन और तेरी प्रजा इस्राएल को गौरव देने वाली ज्योति है।”
(33) बालक के विषय में ये बातें सुन कर उसके माता-पिता अचम्भे में पड़ गये।
(34) शिमोन ने उन्हें आशीर्वाद दिया और बालक की माता मरियम से यह कहा, “देखिए, यह बालक एक ऐसा चिह्न है जिसका लोग विरोध करेंगे। इस के कारण इस्राएल में बहुतों का पतन और उत्थान होगा
(35) और एक तलवार आपके हृदय को आर-पार बेध देगी। इस प्रकार बहुत लोगों के मनोभाव प्रकट हो जाएँगे।”
(36) हन्नाह नाम एक नबिया थी जो अशेर-वंशी फ़नूएल की पुत्री थी। वह बहुत बूढ़ी थी। वह विवाह के बाद केवल सात वर्ष अपने पति के साथ रही
(37) और फिर विधवा हो गयी थी। अब वह चौरासी वर्ष की थी। वह मन्दिर से बाहर नहीं जाती थी और उपवास तथा प्रार्थना करते हुए दिन-रात परमेश्वर की सेवा में लगी रहती थी।
(38) वह भी उसी समय आ कर परमेश्वर को धन्यवाद देने लगी; और जो लोग यरूशलेम की मुक्ति की प्रतीक्षा में थे, वह उन सब को उस बालक के विषय में बताने लगी।
(39) प्रभु की व्यवस्था के अनुसार सब कुछ पूरा कर लेने के बाद वे गलील प्रदेश में अपने नगर नासरत को लौट गये।
(40) बालक येशु बढ़ता गया। वह सबल और बुद्धि से परिपूर्ण होता गया। उस पर परमेश्वर का अनुग्रह बना रहा।
मसीही
यीशु मसीह का अनुयायी (1 कुरिन्थियों 11:1).
मसीह का प्रचार
यीशु के बारे में खुशखबरी बयां करना और उसने हमारे लिए जो कुछ किया वह औरों के साथ बाटना।
(19) इसलिए तुम जा कर सब जातियों को शिष्य बनाओ और उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर बपतिस्मा दो।
(20) मैंने तुम्हें जो-जो आदेश दिये हैं, उन सबका पालन करना उन्हें सिखाओ। देखो, मैं संसार के अन्त तक सदा तुम्हारे साथ हूँ।”